January 22, 2012

चलिए मैडम आगे बढिए!

यह कहानी एक सत्य घटना पर आधारित है. परन्तु यह नहीं कि एक एक शब्द ही सच होगा. उफ़! कितना समझाना पड़ता है.

एक समय की बात है. राष्ट्रीय फैशन तकनीकी संस्थान बैंगलोर में स्वाति, विदिशा, विनीता एवं सुप्रीत नामक लड़कियां थीं. ये चारों लड़कियां ऋचा नामक लेखिका की कक्ष मित्राएं थी. हर छात्रावास की तरह निफ्ट के छात्रावास में भी कुछ खट्टी कुछ मीठी कहानियाँ होती रहती थीं.  जैसे चूहे वाली कहानी का विवरण मैं कुछ सालों पहले दे ही चुकी हूँ.

तो ऋचा एक आलसी स्वभाव की लड़की थी. कॉलेज के २-४ किलोमीटर के दायरे के बाहर जाना उसे कदापि स्वीकार नहीं था जब तक कोई अति भयंकर इमरजेंसी न हो. तो एक बार स्वाति, विदिशा, विनीता, सुप्रीत कुछ अन्य सहेलियों के साथ गरुड़ा मॉल नामक स्थान घूमने की योजना बनाई. जब उन्होंने ऋचा से चलने के लिए पूछा तो वह हमेशा की तरह कोई बहाना मारकर इधर-उधर हो ली. और यह सब लडकियां घूमने निकल पड़ीं.

उस समय गरुड़ा मॉल बैंगलोर के सबसे बड़े मॉल्स में से एक हुआ करता था. वहां पहुंचकर उन्होंने अनेकानेक लड़कियों द्वारा किये जाने वाली क्रियाएं जैसे घूमना, दुकानों में कपड़ों की गहरी समीक्षा, फ़ूड कोर्ट में थोडा-थोडा खाना चुगना इत्यादि काम किये. यह सब कर वह पहुँचे स्केयरी हाउस. स्केयरी हाउस एक भूत बंगला टाइप जगह है जहाँ आप एक ओर से अन्दर जाते हैं, और विभिन्न प्रकार के भूतों से जूझते हुए दूसरे कोने से डरे-डराए बाहर निकलते हैं.

अब यह तो सब जानते ही हैं कि लडकियाँ कॉकरोच जैसी तुच्छ वस्तु देखकर सँसार को हिला देने वाली चीखें निकालती हैं. तो भूत तो फिर बड़ी चीज़ है. दिल में डर और चेहरे पर "अजी दुनिया में बस हम ही दिलेर हैं जी" का भाव लिए, स्केयरी हाउस के गेट पर यह लडकियाँ खड़ी हुईं. विदिशा इन सबमें सबसे छोटी बच्ची थी. उसे थोडा डर लगना शुरू हुआ.  वह बोली "स्वाति दीदी अन्दर नहीं जाते हैं. वापस चलते हैं." जबतक स्वाति कुछ कहती "चलिए अन्दर चलिए" कहकर बाहर खड़े आदमी ने इन सबको अन्दर धकेल दिया और बाहर से दरवाज़ा बंद कर दिया.

अन्दर घुप्प अँधेरा था. "कितना अँधेरा है. कैसे आगे बढें?" हलके गुस्से में मिनाक्षी बोली. थोड़ी हिम्मत करके कुछ समय बाद इन्होंने आगे बढ़ना शुरू किया. थोड़ा सा आगे चलने पर एक खतरनाक भूत अचानक कहीं से कूदकर हूsss हूsss करता हुआ आया. सारी लडकियाँ जोर- जोर से चिल्लाने लगीं और डर के मारे फ्रीज़ हो गयीं. सब भूत को देखकर आsss आsss करती हुईं ज़ोर से चीखीं. भूत ने थोड़ी देर हर एक को डराया. थोड़ी देर बाद चीख पुकार सुनकर शायद वह भी पक गया और बोला - " चलिए मैडम आगे बढिए. आगे बढिए." उसके उपरांत वह फिर धीरे-धीरे आगे बढे. अँधेरा बहुत ही ज्यादा था और कुछ दिखाई नहीं दे रहा था. थोड़ी आगे सफ़ेद चादर से कुछ ढका हुआ था. जैसे कोई लाश हो. जैसे ही यह आगे बढे सफ़ेद चादर के नीचे से कोई उठने लगा. सब लडकियाँ चिल्लायीं और पीछे की ओर जाने लगीं. तो लाश बोली " अरे पीछे नहीं मैडम आगे जाइए. आगे जाइए." तभी किसी ने अपने मोबाइल में लाइट जलाई तो लाश ने फिर टोका "मोबाइल अलाउड नहीं है मैडम. बंद करिये." जिसपर मिनाक्षी ने गुस्से में भरकर कहा " इतना अँधेरा है भैय्या. आगे कैसे जाएँ?" 

इस प्रकार अनेक प्रकार के भूतों से जूझती हुईं और और आगे बढती हुईं सभी लडकियाँ बस बाहर निकलने वाले द्वार तक पहुँच ही गयी थीं कि कहीं से एक छोटा सा भूत भागता हुआ आया और दो तीन लड़कियों के बीच में से निकलने की कोशिश करने लगा. डर और हडबडाहट में विनीता भागी और औंधे मुँह गिर पड़ी एवं उसने अपना पैर तोड़ लिया. अब मिनाक्षी का पारा काफी ऊपर जा चुका था. उसने छोटे भूत को डांटना शुरू किया "आपको तमीज़ नहीं है? देखिये वो गिर गयी है. चोट लग गयी है. अभी हम सब गिर जाते और सबको चोट लग जाती तो? हद्द होती है बदतमीजी की. ये कोई बात है.. " भूत धीरे से "सॉरी" बोलकर कोने में कट लिया. इस प्रकार इन सब का स्केयरी हाउस का भूतिया सफ़र खत्म हुआ.

यूँ तो स्केयरी हाउस का मकसद लोगों को डराना रहा होगा, पर मेरे मित्र वहां भूतों से डांट खा एवं उन्हें डपट कर आये. लडकियाँ सचमुच निराली होती हैं. :)



December 30, 2011

झंड - भाग दो

नरेन्द्र पन्त मेरे गिने चुने मित्रों में से एक है. हाल फिलहाल ही वह अल्मोड़ा दर्शन करके आया है. अतः जब उसने बोला की वह मुझे सिंगौडी खिलेगा तो मुझे लगा की वह सत्य बोल रहा है. और देखते ही देखते झंड नंबर दो की कहानी बन गयी.

December 24, 2011

झंड न होने देंगे

[ यह काल्पनिक कहानी है और इसके पात्र भी एकदम .. अ .. अम्म .. अरे !! वो देखो! हाथी!  ] 

यह कहानी है कुछ दोस्तों की. बचपन के दोस्त. स्कूल वाले दोस्त. और दोस्त भी ऐसे कि स्कूल के समय शायद ही किसी ने आपस में बात की हो. परन्तु स्कूल से निकलते ही ये सब ऐसे बातें करते थे जैसे परम मित्र हों. लेकिन बातें करने, मिलने जुलने का भी अपना एक माहौल होता है. कभी मन करता है तो कभी नहीं भी करता. समय-समय की बात है. तो इन दोस्तों के नाम थे नागिनी, निचा, पौशल और पौरभ. कहानी है पौरभ की झंड की. झंड का कारण था निचा का फ़ोन - जी हाँ! मोबाइल फ़ोन जो इससे पहले निचा की झंड करा चुका था. कमबख्त कहीं का. और निचा की झंड में हाथ था निचा की मम्मी का. निचा की मम्मी एक लोकप्रिय मम्मी थीं. उसकी सहेलियों के बीच में. निचा की सहेलियां मम्मी से खूब बातें करतीं, उनके साथ हंसतीं बोलतीं. एक बार निचा ने मम्मी को फ़ोन पे बात करते सुना (निचा का फ़ोन नहीं लैंड लाइन). मम्मी खूब हंस हंस कर बात कर रहीं थीं. फ़ोन रखने पर निचा ने पूछा " मम्मी किसका फ़ोन था?"
मम्मी : "कनिका का."
निचा: " तो मेरी बात क्यों नहीं कराई?"
मम्मी: अरे उसने मुझसे बात करने के लिए फ़ोन किया था."
निचा:  wtf?! O_o

खैर, बात कुछ ऐसे हुई कि निचा पंतनगर विश्वविद्यालय में पढ़ रही थी. एक दिन वहां से बस में बैठकर वह घर आ रही थी छुट्टियों में. अकेली. निचा के माता पिता अधिकांशतः उसके अकेले सफ़र करने से परहेज़ ही करते थे. अतः निचा की मम्मी थोड़ी विचलित थीं. उस समय निचा के पास नोकिया एन-गेज नामक फ़ोन था. यह फ़ोन उस समय के " कूल " फोंस में आता था. वह इसलिए क्योंकि ये गेम-बॉय जैसा दिखता था और आप इसमें विभिन्न प्रकार के गेम्स खेल सकते थे. परन्तु जब आप फ़ोन पर बात करते थे, तो लाउडस्पीकर की आवश्यकता ही नहीं थी. सारी आवाज़ बाहर आती थी. तो इस मामले में ये ज़रा "अनकूल" फ़ोन था.
निचा बस में बैठी. क्योंकि उसकी मम्मी हर मम्मी की तरह चिंता कर ही रही थीं अतः वह थोड़ी-थोड़ी देर में मोबाइल नामक इस आधुनिक यंत्र का प्रयोग कर समय-समय पर निचा की सुध ले रही थीं. निचा बस में खिड़की की ओर बैठी थी और बगल में कोई व्यक्ति था, थोड़ी बड़ी उम्र का. बस चल पड़ी. थोड़े समय बाद निचा के फ़ोन की घंटी घनघनाई. उसने देखा मम्मी का फ़ोन था.
निचा: " हाँ मम्मी चल गयी बस."
मम्मी: "बगल में कौन बैठा है?"
(बगल वाले अंकल जी ने टेढ़ी आँख से निचा की ओर देखा.)
निचा: (लाल मुंह के साथ) "मम्मी मैं आपसे बाद में बात करुँगी."
मम्मी: "अरे ऐसे बता न. लड़की है तो हाँ बोल, बुड्ढा है तो हाँ हाँ बोल, औरत है तो हाँ हाँ हाँ बोल और लड़का है तो अच्छा-अच्छा बोल. रीता बुआ भी रिनी से ऐसे ही पूछती हैं."
निचा के बगल में बैठे अंकल जी ने निचा को घूरा. बहुत देर हो चुकी थी और तबतक निचा झंड के सागर में नहा चुकी थी. पूरे रास्ते वह लाल मुंह लेकर खिड़की से बाहर देखती रही. तो यह फ़ोन बड़ा ही प्रलयंकारी टाइप का फ़ोन था.

पंतनगर से पढ़ लिखकर निचा पहुंची बैंगलोर. आगे की पढाई करने. संयोग से पौशल भी वहीँ था. अतः एक बार छुट्टियों में दोनों ने यह तय किया कि वह साथ में बैंगलोर निकलेंगे. निचा की मम्मी भी बेफिक्र रहेंगी. पहला गंतव्य था दिल्ली. तत्पश्चात वहां से बैंगलोर के लिए रेलगाड़ी. उस समय नागिनी और पौरभ दिल्ली में ही रहते थे. आप यह मानकर चल सकते हैं कि नागिनी और निचा दोनों ही आलसी किस्म के थे. नागिनी उस समय किसी कंपनी में कार्यरत थी. अतः दोनों ने यह तय किया कि दिल्ली में आकर मिलना तो संभव होगा नहीं फ़ोन पर ही बात कर लेंगे. सही रहेगा.
परन्तु पौरभ आलसी नहीं था. वह निचा और पौशल से मिलने आया. तीनों घूमे फिरे, खाया पिया और तदोपरांत रेलगाड़ी लगने पर उसमें बैठकर गपियाने लगे. तभी पौरभ निचा से बोला - " तूने नागिनी से बात की?"
निचा: " अरे नहीं. अभी करती हूँ." निचा अपना फ़ोन निकालने लगी.
पौरभ- " तेरे फ़ोन में रोमिंग लगेगी. ले मेरे से कर ले."
निचा ने पौरभ का फ़ोन लिया और नागिनी को मिलाया. नागिनी ने नहीं उठाया. निचा ने दूसरी बार पुनः मिलाया. परन्तु नागिनी ने फिर भी नहीं उठाया.
पौरभ: (धीरे से ) "मेरा फ़ोन नहीं उठा रही है वो. तू अपने से ही कर ले"
मरता क्या न करता वाली स्थिति में आकर निचा ने अपने फ़ोन से नागिनी को फ़ोन मिलाया इस डर के साथ कि वो उठा न ले. एक घंटी बजते ही नागिनी ने फ़ोन उठाया.
निचा: "नागू मैं तुझे फ़ोन कर रही थी. तूने.."
नागिनी: "अरे यार पौरभ का फ़ोन आ रहा था इसलिए मैं नहीं उठा रही थी."
निचा: "वो मैं ही थी."
नागिनी: "ओह! (और चिल्लाकर) फ़ोन कहीं स्पीकर पर तो नहीं है?"
निचा: (लाल मुंह के साथ) " नहीं ज़रुरत नहीं है. आवाज़ तेज़ है इसकी"
नागिनी दूसरी ओर भाप बनकर उड़ जाती है.
पौरभ के मुंह पर एक दुःख भरी मुस्कान है. पौशल लगातार हँसे जा  रहा है.


(रौशनी धीमी हो जाती है. धीरे धीरे पर्दा गिरता है)

December 18, 2011

Eleven Things I Don't #Unhate

Since a lot of people list ten things these days, I'm just gonna go with eleven since I don't like it when I start sounding like everyone else.There are some things that do make me uncomfortable for sure.

1.  Shaking Hands makes me really uncomfortable. Irrespective of the gender of the person I'm shaking hands with, they always have softer hands than me. It sucks. Moreover I have small blisters in my hands coz of my scooter handles and I am constantly trying to make them pointed by pulling them up n poke my cheeks with them because it feels like sharp pencil poking that I used to do when I was in school. People never even lie to me and just say " Oh! your hands are really soft." It makes me sad. :(

2.  Now football as I always say might be a good game but I'm just not interested. I would also request all the girls out there to please stop pretending that they like football coz everyone knows that you just like the players and not the game. The only one time I did like football was when I made two packs of popcorn n ate it all. The best part of the game was well of course, popcorn.

3. There was a time when I used to like dogs. Even when one bit my brother I still liked them. I also used to pet them. The ones who were really small or slow or old or the ones that did not bark. But coming to Bangalore made me hate dogs so much so that I want to shoot every one of 'em. Even the cute ones. Firstly because they bark their brains (if they have one) out at night. Secondly the other day a stray dog entered our house and pooped in front of our door. Had to throw away almost three big buckets of water  to clean it up. So I hate them I hate them I hate them. Bloop.

4. I don't have any problems with people boozing, I really don't. What I loathe is what happens after boozing. Perhaps some chemical reaction happens in my brain when I see drunk people doing stupid things and I start scolding them. One of my friends named Woh Ladki was constantly scolded and put to sleep by Richa whenever she slept over at her house after a party (Can't really pull off the third person thing that well. Can I?)

5. Can't Bargain :( I have such a poor record at that. Wonder where the girl genes go away when I shop. May be coz I don't do it that much I don't have the skill in handy. But I sure must have lost a fortune not bargaining. I guess the shopkeepers can see it on my face.

6. "Uttarakhand? Where is it? In Jharkhand?" People have said this to me. Can you beat that? Seriously people, learn some geography. It is acceptable if you do not know how many a states are there in United States of Amerikaah but at least  know your country. Here, a little fodder for your empty brains. Don't forget! You still have Google Power in India!

7. Yes I love chocolates. No I dont like chocolate ice creams Period!

8. TV is dumb. The other day I just switched channels to see how Indian entertainment was like these days. In one of the channels, there was this stuff going on wherein a guy (who was supposedly a vampire) was telling his girl how his vampire Godfather had let him go from the vampire world to become a human. And just like that it went into a flashback where the vampire godfather turned out to be a XXXXXXL size wind cheater wearing, electronically modulated voice bearing, face hiding, sitting on a couch in dark his throat clearing thing/man/ vampire whatever.. It was beyond my comprehension. As I held back the pukish feeling, I turned to another channel where Andrew Symonds was rehearsing "Keetney aadmee they" wearing Gabbar Singh clothes. I shuddered in horror and switched back to my 1 TB baby (yes I have it B-) ). Then I watched Scrubs. Nth time. Felt happy. My world had been restored back to normal again.

9. Sorry dudes. Can never eat that. Never. No offense but it just tastes like rubber. Where's the fun?

10. This one is for those who go to Amrikka for a week and return with an accent. Khi khi khi. Guess what? We know its fake. Believe me even if you stay there for 10000 years, you can't just change your accent dude. Remember all those crazy people from outside who come to India and settle here? Even when they learn Hindi and what not they still carry their accent. Salute to you fakers! Bwaaah!!!

11. Clothes O Ye' Clothes! Why don't you get stacked all by yourself after you are all washed up? Why do we have to fold ya? Be a Man!

September 23, 2011

बैंड बाजा राहुल

गंभीर विषयों पर अपना हाथ साफ़ कर नाकाम अर्थात स्वयं की लेखनी से भयंकर रूप से असंतुष्ट हो, ख़ुद ही का मज़ाक उड़ा मैं वापस से उन्हीं जानी-पहचानी स्थितियों और लोगों के बारे में लिखने की ओर फिर मुड गयी.

संयोग से अपने प्यारे भाई राहुल के बारे में ही एक अन्य घटना लिखने को मैं पुनः बाध्य हो गयी. यूं तो राहुल एक प्रतिभावान, बुद्धिकौशल से परिपूर्ण, कुशल खिलाड़ी (बिजली की गति से गोल दागने वाला) है परन्तु दुर्भाग्य यह सब कहाँ देखता है? वह तो कभी भी, किसी भी प्रकार " लो मैं आ गया!" कहता हुआ आ खड़ा होता है. राहुल के समक्ष भी उसकी अनेकानेक प्रतिभाओं को नज़रंदाज़ करता यह दुष्ट दुर्भाग्य आ खड़ा हुआ.

राहुल पन्त अनेकों कलाओं में निपुण है जिनमें से एक कला नृत्यकला भी है. नृत्यकला में सफलता प्राप्त करने के कारण अपने महाविद्यालय में यह 'डांसर-भाई' आदि पदवियों से सम्मानित भी किया गया है. पर यह तो विधि का विधान और बुनियादी सत्य है, कि अर्श पर पहुँचने के लिए कोई भी सफल व्यक्ति फ़र्श से ही शुरुआत करता है. अतः राहुल भाई का भी एक ऐसा समय था जब उसकी डांस वाली प्रतिभा जगज़ाहिर नहीं हुई थी और वह हौकी में आश्चर्यजनक रूप से गोल दाग कर ही हर्ष और प्रशंसा प्राप्त करता था. इस ही समय में कभी राहुल के (और मेरे) मामा का विवाह होना तय हुआ. विवाह के लिए बारात हल्द्वानी से अल्मोड़ा आनी थी. यह तो पाठकों को ज्ञात है कि राहुल चौथी कक्षा का बालक था और इस उम्र में बच्चों में हर छोटी से बड़ी चीज़ के लिए कौतुहल रहता है. राहुल में भी मामा की शादी के लिए विशेष कौतुहल था. शादी का दिन आया और हर्षानुमोदित राहुल बारात के साथ अल्मोड़ा की ओर चल पड़ा. अल्मोड़ा पहुँचने पर बारात बस से सड़क पर उतरी. बैंड वालों ने बाजे बजाना प्रारंभ किया और धीरे-धीरे लोग संगीत पर थिरकने लगे. राह चलते लोग भी बारात को देखते. कुछ एक घरों में से लोग अपनी अपनी छत पर खड़े हो फ्री के तमाशे का आनंद उठाते.

इस सब के बीच में ख़ुशी में झूमते राहुल ने भी नृत्य के माध्यम से अपने हर्ष को प्रकट करना चाहा. अतः वह नृत्य करते हुए लोगों के बीच ख़ुशी-ख़ुशी घुस गया. राहुल की भूरी-भूरी प्रशंसा करते, सबको उल्लुओं की तरह ताकते मैं और मेरी बहन अन्नू धीरे- धीरे कोने में चल रहे थे तथा एक दूसरे को "पहले तू जा , पहले तू जा " कहकर नृत्य करते समूह की ओर जाने के लिए कभी-कभी प्रोत्साहित भी कर रहे थे. पर जा नहीं रहे थे. थोड़ी ही देर के उपरान्त उसी भीड़ के मध्य से गुस्से की आग में धधकता हुआ राहुल हमें बाहर आता दिखाई दिया. कारण पूछने पर दांत पीसता हुआ राहुल बोला- 
"मैं अन्दर गया नाचते-नाचते तो एक आदमी की लात लग गयी. खैर फिर भी मैं भूलकर नाचने लगा तो थोड़ी देर के बाद एक दूसरे आदमी के हाथ से मुझे थप्पड़ लग गया. मुझे भी गुस्सा आया और मैं उस आदमी को मुक्का मारकर बाहर चला आया. मैं डांस करने जा रहा हूँ और मार रहे हैं. हद है. अबसे कभी नहीं करूंगा डांस."
क्रोध से भरे हुए राहुल ने कहा. 

इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना को न जाने आज कितने वर्ष हो गए हैं. और इसे संयोग कहिये या विधि का विधान राहुल ने उसके बाद बहुत डांस किया है.

[कृपया ध्यान दें. यह न समझें की मैं अपने प्रिय भाई राहुल की जान के पीछे हाथ धो के पड़ी हुई हूँ. यह लेख उससे पूछ कर, आज्ञा लेकर ही लिखा गया है हाँ. कृपया हमारे बीच फूट डालने की कोशिश न करें प्लीज़ हाँ. हाँ नहीं तो. ]

September 22, 2011

The Rant Of All Rants


Disclaimer: If you are reading this and thinking of writing bad comments just hold it! Please haan only compliments no bad comments. I forbid you! And this blog has no concern with any living or dead person whatsoever. So please don’t try to correlate. Huh! Idiots! Pata nahi kahan kahan se chale aate hain.

Did not want to rise above my Richa-Rahul fights, goof ups and school gimmicks but I felt a little too strongly about it. Also I do not believe in current affairs/newspapers for that matter. But still there is an invisible force (may be Luke Skywalker's light saber) which is coaxing me. After this rant/cursing/brooding/ blah blah.. I will return back to my original posts ( I swear). I have 2 little stories for you today and too many complains.
Once there was a girl. She got angry on a random day and decided to get drunk and write a blog because a day before she had seen Zuckerburg(er) doing the same thing in some movie. The Indian public read it became furious and decided to sue her.
But as it was India and in India as you know that freedom of speech knew no bounds, people could not do so. 
Girl got angry again and said bad comments from bad girls and boys were not welcome. This was not Harvard or USA. They could not sue her so they should shut it.
So they began to write hate comment of the nature which could be called ferocious and threatening too.One miraculous day she discovered the way to delete comments and deleted all the hate comments. Then she lived happily ever after.

There lived another girl.
Her boyfriend was an idiot of the finest kinds.
He abused her dumped her on Zuckerburg(er)’s site.
She died.

I was thinking of all this and remembered the words of an American guy who had come to travel to India. He said “there are two types of Americans. The ones who are uptight. If they come to India they lose it, get mad and decide that they will never ever, ever, ever, ever come to the stupid third-world country again. The others are the ones who come to India, lose it, get mad and decide that they will never ever, ever, ever, ever leave the country again and end up living in Rishikesh or Kasardevi, Almora.”

Okay I made up the second ones but they are the ones you know who smile n play holi & keep saying Naamaaste, shookhriya and other random hindi words (which Indians who have studied hindi till 10th standard somehow fail to read and write. Ironic isn’t it?)
Since the last few days I have realized that we Indians can give the fellow uptight Americans a run for their money. In fact they can take lessons from us on uptightment. We don’t believe in what others say, our id exceeds our egos and superegos and hence the only truth is what we think is. Other people’s views? Bah! Humbug! This is sad. 20 years from now we will be more screwed up than we think we will be. Girls will be the new boys and boys will be the new well.. maybe they won’t be there. All the girls would have eaten them up.
Who is to be blamed? Zuckerburg(er) ofcourse!

July 03, 2011

सीमेंट, चॉक और थप्पड़

अल्मोड़ा पढ़े लिखे लोगों का गढ़ है और रसायन विज्ञान के धुरंधर शिक्षकों का भी. यह मेरा अटल विश्वास है कि यहाँ से बेहतर रसायन विज्ञान के शिक्षक अब किसी दूसरे ग्रह के अल्मोड़ा नामक स्थान पर ही मिलेंगे.

कुछ दिनों पहले मेरा मित्र कौशल मुझसे मिलने घर आया. संयोग से मेरी परम मित्र रागिनी भी उस समय मेरे घर पर ही थी. अतः स्वाभाविक रूप से स्कूल की बातें, हम कितने अच्छे और आदर्श विद्यार्थी थे  और अब कितने खराब बच्चे आते हैं आदि आदि महत्त्वपूर्ण विषयों पर गौर करने के पश्चात स्कूल के पुराने किस्से चल पडे. अनेकानेक किरदारों के बीच से गुज़रते हुए हम पहुचे पारु पर जो कि कक्षा के रोचाकतम किरदारों में से एक थी. उसका स्वभाव ही कुछ इस प्रकार था कि वह सदा ही चुटीले वातावरण उत्पन्न करने में सफल रहती थी.
यदि आप कभी अल्मोड़ा जाएँ तो आर्मी स्कूल कि ओर चढ़ती रोड से लगी सीमेंट की एक दीवार पर पारु खुदा हुआ दिखाई देगा. एक बार रागिनी उस रास्ते से गुज़री तो उसकी नज़र दीवार पर लिखे हुए 'पारु' पर पड़ी. घर पहुँचने पर जब उसने पारु को बताया तो पारु ने जवाब दिया- 'लिख दिया होगा किसी लड़के ने. आजकल लड़के बड़ा परेशान करते हैं.' रागिनी फिर पारु से बोली - ' राइटिंग तो पारु वो तेरी जैसी ही लग रही थी पर.' तो थोडा रुक कर पारु बोली -' सीमेंट एकदम फ्रेश दिखाई दे रहा था. किसका मन नहीं करता?'

हमारे समय में स्कूल में मार पड़ने का चलन बंद नहीं हुआ था. आँख दिखाने पर माता - पिता ' हाय हमारे बच्चे को घूर कैसे दिया? ' कहते हुए स्कूल नहीं आ धमकते थे. कक्षा के कुछ ऐसे लोग थे जो हमेशा मार खाने वालों की सूचि में होते थे और कुछ शिक्षक ऐसे जो हमेशा मारने के मूड में. गणित पढ़ाने वाले योगेश सर यूँ तो बहुतायत में पीटते थे परन्तु कभी मन न होने पर वह डस्टर झाड-झाड कर चॉक के चूरे का एक ढेर बनाते थे. फिर उस दिन के बकरे को बुलाकर इस प्रकार उसमें मुह रगड़वाते थे कि नाक और गाल सफ़ेद हो जाएँ. तत्पश्चात दूसरों कि हंसी का पात्र बन आपको पूरे पीरियड भर ऐसे ही बैठना है. यदि हटाने या मिटाने की कोशिश की तो डंडे खाने के लिए तैयार रहिये.
अंग्रेजी पढ़ाने वाले रवि सर का अंदाज़ थोडा भिन्न था. मारने के मामले में वे थोड़े आलसी थे. खड़ा करने एवं मुर्गा बनाने वाली नीति अपनाने में वे अधिक विश्वास रखते थे. थोडा भेदभाव इसमें अवश्य व्याप्त था. उदाहरण के तौर पर कुछ सज़ाएं इस प्रकार थीं -
  • कौन कौन होम वर्क की कॉपी नहीं लाया है? गर्ल्स खड़े हो जाइए बौय्ज़ हाथ ऊपर कर के खड़े हो जाइए. 
  • डायरी नहीं लाये? लड़कियों खड़े हो जाओ, लड़के मुर्गा बन जाओ.
  • जो जो कॉपी नहीं लाये हैं बहार निकल जाओ. लडकियां सीट पर खड़े हो जाओ.
यदि रवि सर किसी फ्री पीरियड या टीचर के न आने पर क्लास ले रहे हैं, तो हुनर प्रदर्शन का सिलसिला चलता था. या तो आप आकर 'चार चुटकुले'  सुनाइये या गाना गाईये अथवा नृत्य भी कर सकते हैं.
तो इस प्रकार इसी टाइप के एक पीरियड में राहुल पन्त की कक्षा में रवि सर पधारे और चार चुटकुले या एक गाने वाला कार्यक्रम प्रारंभ हुआ. एक एक कर कक्षा के बच्चे आये और बहादुरी के साथ अपनी अपनी बारी झेलकर गए. कुछ बच्चों के प्रोत्साहित करने पर उसी समय चला हुआ शंकर महादेवन का ब्रेथलेस गाना जब राहुल ने गाया तो सर प्रभावित न हो सके. अतः राहुल ने दुसरे गाने के रूप में 'संदेसे आते हैं ' गुनगुनाया जिसके अंत में राहुल को रवि सर से दो थप्पड़ ' ये कोई गाना हुआ ये ' डायलौग के साथ पड़ गए.
दुखी राहुल ये कभी समझ न पाया की इसका कारण क्या था.

    September 28, 2010

    मम्मी पुराण

    यदि मेरा कोई मित्र मुझसे कहे कि मेरी माँ मुझसे प्रसन्न एवं संतुष्ट हैं तो मैं कहूँगी कि ये सरासर झूठ है। ऐसा हो ही नहीं सकता। यह मम्मियों की प्रकृति के विपरीत बात है और उसी प्रकार का घोर असत्य है जैसा कि हमारे छात्रावास के बच्चों ने तब बोला था जब वो जल नामक बैंड का कॉन्सर्ट देखने गए थे। उस असत्य पर बाद में आने का वचन देते हुए मैं माँओं कि असंतुष्टि पर पुनः प्रकाश डालना चाहूंगी।




    जब मैं पंतनगर विश्वविद्यालय में पढ़ रही थी तब हम जाड़ों के दिनों में धूप में बैठे हुए विश्व के अनेकानेक विषयों पर चर्चा करते करते अपनी अपनी माताओं पर आ गए। "हाँ मेरी मम्मी भी यही कहती है " के उदघोष के साथ छात्रावास कि छत गूँज उठी। सभी माँओं द्वारा कहे गए वाक्य आश्चर्यजनक रूप से एक से थे। कुछ उदाहरण



    १. पापा बौखलाए से कुछ ढूंढ़ रहे हैं। थोड़ी देर बाद कहते हैं "अरे भई फ्रिज के ऊपर जो पेन रखी हुई थी वो कहाँ गई?"

    मम्मी- "अरे वहीँ होगी।"

    पापा- "अरे नहीं है यार।"

    तभी मम्मी भी ढूंढती हुई आती हैं और उन्हें भी जब पेन नहीं मिलती तो वे कहती हैं - "मैंने तो यहीं रक्खी थी, ये बच्चों ने इधर उधर कर दी होगी।

    इल्ज़ाम सदा ही बच्चों के सर!



    २. अगला सीन है सब्ज़ी मण्डी का, जहाँ मम्मी हमें तरह तरह के इमोशनल ब्लैकमेल करती हुई ले गई हैं। "मेरे साथ क्यों जाओगे अब तुम। बड़े हो गए हो अब तो। मम्मी के साथ जाने में शर्म आती है।"

    तो हम विभिन्न प्रकार के रंगों और आकारों की सब्जियों से लदे हुए चल रहे हैं। पूरे महीने की खरीद ली हैं, क्या भरोसा अगली बार बच्चे साथ आयें या न आयें।

    मम्मी- " ऋचा ज़रा ऑटो बुलाना जल्दी से।"

    जबतक मैं ऑटो वाले से बात करती हूँ तब तक मम्मी आकर सब्ज़ी का पहाड़ ऑटो में लादती हैं और ऑटो वाले से कहती हैं- " भइया ज़रा दो मिनट रुकना आलू लेने हैं।"

    ऑटो वाला - "मैडम टाइम जाता है।"

    मैं - " मम्मी हो गया ना अब। इतना खरीद के चैन नहीं आया? "

    मम्मी- "चुप रह तू।" (ऑटो वाले से) " भइया बस दो मिनट ही तो रुकना है।"

    अंततः जीत मम्मी की होती है और आलू का बोरा ऑटो में लाद दिया जाता है।

    वापस जाते हुए मम्मी मेरी तरफ़ मुडती हैं और कहती हैं -"ये तिलक रोड में गजक बड़े अच्छे मिलते हैं। ऋचा ज़रा ऑटो रुकवाना तो......"

    गुरर्र



    ३. तुलनात्मक विवरण एक ऐसी चीज़ है जो स्कूलों में नहीं मम्मियों के द्बारा सिखाया जाना चाहिए। यह विधि का विधान है और हर बच्चे के भाग्य में लिख दिया गया है।

    मम्मी- " इतनी देर से देख रही हूँ इधर-उधर, इधर-उधर घूमने में लगी है। पढ़ाई क्यों नहीं कर लेती है?"

    मैं- [ढिठाई से] "अभी कर लूंगी ना थोड़ी देर में।"

    मम्मी- "नीचे आशू अर्पण को देखो। कितना कहना मानते हैं अपनी मम्मी का। एक तुम हो। मेरी कोई बात ही नहीं सुनते हो।"

    मैं- "उन्हीं को बना लो फ़िर अपने बच्चे।"

    मम्मी- "तुमसे तो कुछ कहना ही बेकार है।"



    [हा हा हा। यहाँ जीत हमारी!!]



    ४. यह तब होता है जब आप छुट्टियों में घर आते हैं। कुछ आरंभिक दिनों में मम्मी अच्छा खाना बनाने में व्यस्त हो जाती हैं। जब एक हफ्ता गुज़र जाता है तो सबकुछ बदल जाता है। सात बजे ही नौ बज जाते हैं।

    सुबह के सात बजे हैं और आपको लगता है कि आप नींद के सुख सागर में गोते लगा रहे हैं। तभी अचानक आपको यह सुनाई देगा....

    "ऋचा उठ जा। कब तक सोई रहेगी। जल्दी उठ। नौ बजे गए हैं।

    मैं- "हाँ उठ रही हूँ।" [और मैं पुनः सो जाती हूँ]

    मम्मी कमरे में अवतरित होती हैं और फ़िर से चिल्लाती हैं।

    मैं-" मम्मी यार सोने दो न प्लीज़।"

    मम्मी- "आधा दिन बीत गया है। तुम लोग सोये पड़े हो। चलो उठ जाओ।"

    और कमरे से जाते जाते यदि गर्मियां हैं तो मम्मी पंखा बन्द कर देंगी और ठण्ड के दिन हैं तो समझिये आपकी रजाई उनके साथ चली गई।



    ये कुछ अनमोल चीज़ें और खट्टी मीठी लड़ाईयां हैं जो मम्मियों को मम्मी बनती हैं :)

    August 07, 2009

    मैंने दागा गोल मुझे पता न चला

    आर्मी स्कूल अल्मोड़ा की हॉकी टीम से पूरा अल्मोड़ा थर्राता था। जब भी हमारे स्कूल की टीम का मैच होता था, हम बस जीतने के लिए जाते थे। ऐसा कोंई मैच न रहा होगा जिसे जिसे हमारी टीम ने न जीता हो। हॉकी के मैच में जाना बड़ा ही सुखदायी था। इसके दो कारण थे। पहला यह था की मैच अक्सर स्कूल के आखिरी घंटों में होता था। स्टेडियम तक जाने का समय, मैच के पहले के इंतज़ार का समय एवं मैच। यह सब मिलाकर हमारी अंत की कुछ पढ़ाई छूट जाती थी। स्कूल जाकर पढ़ाई न करने के सुख जैसा कोंई सुख न था। अतः यह था हमारा सुखदायी कारण नम्बर एक।
    ऐसा माना जाता है की उत्साह बढ़ाने पर खिलाड़ियों का प्रदर्शन स्तर अच्छा हो जाता है। आर्मी स्कूल के खिलाड़ियों का भी होता था। इसलिए हम अपनी पूरी ताकत लगाकर गला फाड़ फाड़ कर, सभी खिलाड़ियों का उत्साह बढ़ाने में तत्पर थे। साथ ही हामिद मैम भी काफ़ी तत्पर थीं। इस तत्परता के कारण अगले दिन मैम का गला पूर्णतया बैठा होता था। इसी कारणवश वह धीरे से ' सेल्फ- स्टडी' कहकर एक कोने में बैठ जातीं और पूरी कक्षा में खुशी की लहर दौड़ जाती। यह हुआ हमारा सुखदायी कारण नम्बर दो।

    समय के साथ साथ हॉकी का चलन स्कूल में बढ़ा तो खिलाड़ी भी बढे। खिलाड़ी बढे तो एक टीम में फिट न हो पाये। धीरे-धीरे हॉकी की एक बी टीम बनी। थोड़ा और चलन और खिलाड़ी बढ़ने पर सी और डी टीम भी बन गयीं।
    यह टीमें अपने प्रदर्शन के घटते क्रम में ऐ, बी, सी और डी थीं।

    आर्मी स्कूल की डी टीम में राहुल नामक एक लड़का था। यह चौथी कक्षा का छात्र था। एक बार इस डी टीम का मैच किसी दूसरे स्कूल के साथ होना निश्चित हुआ। मैच १-१ के स्कोर के साथ बराबरी पर रहा। गौर करने लायक बात यह है की हमारी डी टीम भी इतनी शक्तिशाली थी की उसने दुसरे स्कूल की टीम को जीतने न दिया। मैच ड्रा करवाकर प्रसन्नचित्त डी टीम स्कूल की ओर वापस आ गई।

    आर्मी स्कूल की डी टीम का राहुल नामक लड़का मेरा भाई था।
    "कैसा रहा तुम्हारा मैच?" मैंने राहुल से पुछा।
    "अच्छा था। ड्रो हो गया। " राहुल ने कहा।
    "अच्छा गोल कितने हुए?"
    " एक एक हुआ दोनों टीम की तरफ़ से।"
    "हमारे यहाँ किसने किया?"
    वो थर्ड क्लास का एक लड़का है उसने किया"
    "अच्छा।"
    इस संवाद के समय हमारे माता पिता शहर से बाहर हमारे ननिहाल गए हुए थे।

    उत्तर भारत में दो मुख्य समाचार पत्र हैं - दैनिक जागरण और अमर उजाला। दोनों ही यदा कदा स्वयं को सर्वश्रेष्ठ सिद्ध करते हुए पाये जाते हैं। इन दो समाचार पत्रों में से पहला वाला हमारे घर पर आता था। इस समाचार पत्र के आने और दूसरे के न आने से राहुल को काफ़ी नुक्सान हुआ। क्योंकि वह अपने बारे में छपी उस ख़बर से बेखबर रहा जो उस समाचार पत्र में थी जो हमारे घर पर नहीं आता था।

    भोर की लालिमा अभी छंटी नहीं थी, चिडियां चहक रहीं थीं और पेडों के पत्तों पर ओस की बूँदें थीं। फ़ोन की घंटी बजी और मेरे उठाते ही मुझे अपनी माँ की चहकती हुई आवाज़ आई। "ऋचा राहुल का नाम आया है पेपर में। अमर उजाला में। "
    "क्या?" आश्चर्य और अविश्वास मिश्रित आवाज़ में मैंने कहा।
    मम्मी पढ़कर सुनाने लगीं "कल स्टेडियम में आर्मी स्कूल की डी टीम और महर्षि विद्या मन्दिर के बीच हुआ मैच ड्रा हो गया। आर्मी स्कूल की ओर से एकमात्र गोल राहुल ने किया........ अरे राहुल को बुला"
    मैंने राहुल को आवाज़ दी और उसने भी मम्मी के मुह से स्वयं के द्बारा गोल किए जाने की ख़बर प्राप्त की।

    "हा हा हा गोल किसी और ने किया और नाम तेरा आ गया। वाह!"
    "मैंने ही किया था शायद। मुझे याद सा आ रहा है कि बौल मेरी हॉकी से लगती हुई गई थी। " बड़े बड़े कांडों के छोटे छोटे बयानबाज़ों की तरह अपने बयान को बदलता हुआ राहुल बोला।

    स्कूल पहुचने पर कक्षा तीन का एक लड़का राहुल के पास आया।
    "भैय्या आपका नाम राहुल है?" वह बोला।
    "हाँ।" राहुल ने कहा।
    "कल गोल क्या आपने किया था?"
    "हाँ।" राहुल के चेहरे पर विजयी मुस्कान खिल उठी।
    "पर वो तो कह रहा है कि गोल मैंने किया था." उसने एक बच्चे की ओर इंगित किया।
    "अरे नहीं मैंने ही किया था।" कहकर राहुल ने उसको झिड़क कर भगा दिया।

    तो इस प्रकार कक्षा चार का राहुल नामक वह लड़का उन बड़े बड़े लोगों का एक उदाहरण है जो न जाने कितने बड़े बड़े काम कर जाते हैं पर उन्हें स्वयं इस बात का आभास नहीं होता कि वे क्या कर गुज़रे हैं।